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सीम-ओ-ज़र चाहे न अलमास-ओ-गुहर माँगे है | शाही शायरी
sim-o-zar chahe na almas-o-guhar mange hai

ग़ज़ल

सीम-ओ-ज़र चाहे न अलमास-ओ-गुहर माँगे है

नो बहार साबिर

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सीम-ओ-ज़र चाहे न अलमास-ओ-गुहर माँगे है
दिल तो दरवेश है उल्फ़त की नज़र माँगे है

जब ग़ज़ल मुझ से कोई मिस्रा-ए-तर माँगे है
काविश-ए-फ़िक्र मिरा ख़ून-ए-जिगर माँगे है

दिल को है आफ़ियत-ए-अंजुमन-ए-गुल की तलब
ज़िंदगी दश्त-ए-मुग़ीलाँ का सफ़र माँगे है

मुझ को ले जाए जो अनजाने दयारों की तरफ़
मेरी आवारा-मिज़ाजी वो डगर माँगे है

अपने माहौल से हर शख़्स है माइल-ब-फ़रार
कोई बेज़ार है घर से कोई घर माँगे है

थे जो रंगीनी-ए-दामान-ए-नज़र का सामाँ
दीदा-ए-शौक़ वही शाम-ओ-सहर माँगे है

कल भी जाँ-बाज़ ही करते थे निगह-दारी-ए-हक़
ये जुनूँ आज भी नज़राना-ए-सर माँगे है

हो जहाँ ऐब-शुमारी ही परख का मफ़्हूम
साबिर उस शहर में क्या दाद-ए-हुनर माँगे है