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सिदरत-उल-वस्ल के साए का तलबगार हूँ मैं | शाही शायरी
sidrat-ul-wasl ke sae ka talabgar hun main

ग़ज़ल

सिदरत-उल-वस्ल के साए का तलबगार हूँ मैं

वक़ार ख़ान

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सिदरत-उल-वस्ल के साए का तलबगार हूँ मैं
तपिश-ए-हिज्र में बरसों से गिरफ़्तार हूँ मैं

जा किसी और को जा धमकियाँ दे मारने की
जब से मैं पैदा हुआ तब से सर-ए-दार हूँ मैं

मेरा पैग़ाम भला तेग़ कहाँ रोकेगी
हाकिम-ए-वक़त को बतलाओ कलम-कार हूँ मैं

मैं ने तो रब को भी पूजा है और उस यार को भी
वाइज़ा तू ही बता किस का गुनहगार हूँ मैं

मंज़िल-ए-ज़ीस्त कहाँ मंज़िल-ए-मक़्सूद 'वक़ार'
इक सुरय्या-ए-मोहब्बत का तलबगार हूँ मैं