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शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ | शाही शायरी
shuur-e-kaif-o-KHushi hai zara Thahr jao

ग़ज़ल

शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ

शौकत परदेसी

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शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ
वुफ़ूर-ए-ग़म में कमी है ज़रा ठहर जाओ

नतीजा जोहद-ए-मुसलसल का आगे क्या होगा
महल्ल-ए-फ़िक्र यही है ज़रा ठहर जाओ

कशाकश-ए-ग़म-ए-दौराँ में ज़िंदा रहने की
तुम्ही से दाद मिली है ज़रा ठहर जाओ

ये बात तुम से कोई और कह नहीं सकता
ये बात दिल ने कही है ज़रा ठहर जाओ

तुम्हारे जाने के एहसास ने जो बख़्शा है
वो ज़ख़्म ताज़ा अभी है ज़रा ठहर जाओ

ये रात सिर्फ़ मह-ओ-कहकशाँ की रात नहीं
ये रात तुम से सजी है ज़रा ठहर जाओ

ज़बाँ कलाम की लज़्ज़त से क्यूँ रहे महरूम
नज़र नज़र से मिली है ज़रा ठहर जाओ

फिर अब न तुम से जो हम मिल सके तो क्या होगा
हयात सोच रही है ज़रा ठहर जाओ

चमन से दूर नशेमन की फ़िक्र क्या कि अभी
तड़प के बर्क़ गिरी है ज़रा ठहर जाओ

तिलिस्म-ए-ऐश तुम्हारी क़सम नहीं टूटा
फ़रेब-ए-ख़्वाब वही है ज़रा ठहर जाओ

इलाज-ए-गर्दिश-ए-अय्याम के लिए 'शौकत'
तमाम उम्र पड़ी है ज़रा ठहर जाओ