शुऊर-ए-इश्क़ अगर फ़ितरत-ए-निगाह में है
हँसी में उस की वही है जो मेरी आह में है
न जाने कौन सी मंज़िल है मेरी क़िस्मत में
न जाने कौन सी मंज़िल अभी भी राह में है
बस इक मुझी से तुझे क्यूँ है इतनी हमदर्दी
सुना है सारा ज़माना तिरी पनाह में है
पता क्यूँ पूछते रहते हो सब से 'ताबिश' का
जो मय-कदे में नहीं है तो ख़ानक़ाह में है

ग़ज़ल
शुऊर-ए-इश्क़ अगर फ़ितरत-ए-निगाह में है
रोहित सोनी ‘ताबिश’