EN اردو
शुजाअ'त की मिसालें क़ब्र के पत्थर में रक्खी हैं | शाही शायरी
shujaat ki misalen qabr ke patthar mein rakkhi hain

ग़ज़ल

शुजाअ'त की मिसालें क़ब्र के पत्थर में रक्खी हैं

ख़्वाजा रब्बानी

;

शुजाअ'त की मिसालें क़ब्र के पत्थर में रक्खी हैं
हमारी सारी शमशीरें अजाइब घर में रक्खी हैं

हवा की दुश्मनी से हौसले टूटे नहीं उस के
उड़ानें तो परिंदे के शिकस्ता-पर में रक्खी हैं

जिसे चाहे दिखाता है जिसे चाहे मिटाता है
कि तस्वीरें सभी अब दस्त-ए-शीशा-गर में रक्खी हैं

चराग़ों के मोहल्ले में बहुत तेज़ी से चलती है
ये कैसी वहशतें यारब हवा के सर में रक्खी हैं

हमारे बा'द आने वालों को कोई तो समझाए
गए वक़्तों की तारीख़ें हर इक पत्थर में रक्खी हैं

गुलों से क़ुर्बतें साबित फ़क़त ख़ुशबू से होती हैं
क़बाएँ तो सबा की क़ब्ज़ा-ए-सरसर में रक्खी हैं

हम अपना साज़-ओ-सामाँ ले तो आए हैं नए घर में
मगर कुछ दस्तकें अब भी पुराने घर में रक्खी हैं

वो राह-ए-वस्ल कि पैकर नहीं बीनाई चलती थी
मिरी आँखें तिरे दीदार के मंज़र में रक्खी हैं