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शुहूद-ए-दिल-ज़दगाँ मंज़रों में रख आना | शाही शायरी
shuhud-e-dil-zadgan manzaron mein rakh aana

ग़ज़ल

शुहूद-ए-दिल-ज़दगाँ मंज़रों में रख आना

फ़रहान सालिम

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शुहूद-ए-दिल-ज़दगाँ मंज़रों में रख आना
लहू के दाग़ गुलों के परों में रख आना

ये ख़ानवादा-ए-मंसूर मिट न जाए कहीं
मिरी मताअ-ए-जुनूँ कुछ सरों में रख आना

हैं इन में बंद किसी अहद-ए-रस्त-ख़ेज़ के अक्स
ये मेरी आँखें अजाइब-घरों में रख आना

ये रात पिछले पहर आफ़्ताब ढूंढेगी
चराग़-ए-शाम जला कर दरूँ में रख आना

तमाम उम्र इक आँधी में पर रखे 'सालिम'
विदा हो तो इक आँधी परों में रख आना