शुहूद-ए-दिल-ज़दगाँ मंज़रों में रख आना
लहू के दाग़ गुलों के परों में रख आना
ये ख़ानवादा-ए-मंसूर मिट न जाए कहीं
मिरी मताअ-ए-जुनूँ कुछ सरों में रख आना
हैं इन में बंद किसी अहद-ए-रस्त-ख़ेज़ के अक्स
ये मेरी आँखें अजाइब-घरों में रख आना
ये रात पिछले पहर आफ़्ताब ढूंढेगी
चराग़-ए-शाम जला कर दरूँ में रख आना
तमाम उम्र इक आँधी में पर रखे 'सालिम'
विदा हो तो इक आँधी परों में रख आना
ग़ज़ल
शुहूद-ए-दिल-ज़दगाँ मंज़रों में रख आना
फ़रहान सालिम