शुआ-ए-ज़र न मिली रंग-ए-शाइराना मिला
मता-ए-नूर से क्या मुझ को मुंसिफ़ाना मिला
मैं किस से पूछूँ कि इस सैल-ए-ख़ाक से बाहर
किसे निकलना न था किस को रास्ता न मिला
कहीं दिखाई न दी अंजुम-ए-दुआ की चमक
घने अंधेरे में इक हाथ भी उठा न मिला
भटक रहा हूँ मैं इस दश्त-ए-संग में कब से
अभी तलक तो दर-ए-आईना खुला न मिला
जलाए फिरता रहा मिश्अल-ए-तजस्सुस मैं
मगर सुराग़ कहीं खोई शाम का न मिला
उगलता होगा कभी सोना चाँदी ख़ित्ता-ए-दिल
मुझे तो एक भी सिक्का यहाँ पड़ा न मिला
नवाह-ए-जाँ में वो तूफ़ान-ए-हब्स था कि 'हसन'
हवा तो क्या कि कहीं हवा न मिला
ग़ज़ल
शुआ-ए-ज़र न मिली रंग-ए-शाइराना मिला
हसन अज़ीज़