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शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ | शाही शायरी
shorish se chashm-e-tar ki zi-bas gharq-e-ab hun

ग़ज़ल

शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ

वलीउल्लाह मुहिब

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शोरिश से चश्म-ए-तर की ज़ि-बस ग़र्क़-ए-आब हूँ
दिन रात बहर-ए-ग़म में ब-रंग-ए-हुबाब हूँ

ये दौर अब तो है कि रक़ीबों की बज़्म में
तू मस्त हो शराब से और मैं कबाब हूँ

मुझ ख़ूँ-गिरफ़्ता पर मिरे क़ातिल कमर न बाँध
में आप अपने क़त्ल का ख़्वाहाँ शिताब हूँ

हर सुब्ह-ओ-शाम बाग़ में सहरा में जूँ नसीम
उस गुल की जुस्तुजू की हवस पर ख़राब हूँ

हैरत से उस को देखते हैं मिस्ल-ए-आइना
इफ़शा-ए-दर्द-ए-दिल से खड़ा बे-जवाब हूँ

आगाह है ख़ुदा ही 'मुहिब' रोज़ किस लिए
नज़रों में उन बुताँ की महल्ल-ए-इ'ताब हूँ