शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है
कोशिश-ए-ज़ब्त भी नाकाम हुई जाती है
मस्त हैं और तलब-ए-जाम हुई जाती है
बे-ख़ुदी होश का पैग़ाम हुई जाती है
मुस्कुराता है हसीं पर्दा-ए-गुलशन में कोई
और कली मुफ़्त में बदनाम हुई जाती है
क़ैद में भी है असीरों का वही जोश-ए-अमल
मश्क़-ए-पर्वाज़ तह-ए-दाम हुई जाती है
तोड़ कर दिल निगह-ए-मस्त न फेर ऐ साक़ी
बज़्म की बज़्म ही बे-जाम हुई जाती है
लब जो खोले तो गुलिस्ताँ में कली कौन कहे
चुप भी रहती है तो बदनाम हुई जाती है
मुझ को ले जाएगी मंज़िल पे मिरी सुब्ह-ए-यक़ीं
लाख रस्ते में मुझे शाम हुई जाती है
नावक-अंदाज़ी-ए-जानाँ का असर है कि 'फ़िगार'
एक दुनिया मिरी हमनाम हुई जाती है
ग़ज़ल
शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है
फ़िगार उन्नावी