EN اردو
शोला इधर उधर कभी साया यहीं कहीं | शाही शायरी
shoala idhar udhar kabhi saya yahin kahin

ग़ज़ल

शोला इधर उधर कभी साया यहीं कहीं

राजेन्द्र मनचंदा बानी

;

शोला इधर उधर कभी साया यहीं कहीं
होगा वो बर्क़-जिस्म सुबुक-पा यहीं कहीं

किन पानियों का ज़ोर उसे काट ले गया
देखा था हम ने एक जज़ीरा यहीं कहीं

मंसूब जिस से हो न सका कोई हादसा
गुम हो के रह गया है वो लम्हा यहीं कहीं

आवारगी का डर न कोई डूबने का ख़ौफ़
सहरा ही आस-पास न दरिया यहीं कहीं

वो चाहता ये होगा कि मैं ही उसे बुलाऊँ
मेरी तरह वो फिरता है तन्हा यहीं कहीं

'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
इक हादसा भी ताक में होगा यहीं कहीं