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शो'ला-ए-दर्द ब-उन्वान-ए-तजल्ला ही सही | शाही शायरी
shoala-e-dard ba-unwan-e-tajalla hi sahi

ग़ज़ल

शो'ला-ए-दर्द ब-उन्वान-ए-तजल्ला ही सही

हाफ़िज़ लुधियानवी

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शो'ला-ए-दर्द ब-उन्वान-ए-तजल्ला ही सही
लुत्फ़-ए-दीवानगी-ओ-ज़ौक़-ए-तमाशा ही सही

दिल नहीं लज़्ज़त-ए-दीदार से सरशार अगर
वहशत-ए-जाँ ही सही हसरत-ए-जल्वा ही सही

ये भी क्या कम है कि उम्मीद-ए-करम में गुज़रे
रस्म-ओ-आईन-ए-वफ़ा दहर में अन्क़ा ही सही

कुछ तो है जिस से है क़िंदील-ए-ग़ज़ल ताबिंदा
फ़िक्र-ए-इमरोज़-ओ-परेशानी-ए-फ़र्दा ही सही

हिज्र में खुलते हैं असरार-ए-मोहब्बत क्या क्या
ग़म में ये मो'जिज़ा-ए-हुस्न-ए-मसीहा ही सही

उन के दामन पे कोई दाग़ न आने पाए
मैं हर इक रंग हर इक हाल में रुस्वा ही सही

फिर भी है वज्ह-ए-क़रार-ए-दिल-ए-मुज़्तर 'हाफ़िज़'
वो अदू दीन का दुश्मन मिरी जाँ का ही सही