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शिकवे की चुभन मुझ को सदा अच्छी लगी है | शाही शायरी
shikwe ki chubhan mujhko sada achchhi lagi hai

ग़ज़ल

शिकवे की चुभन मुझ को सदा अच्छी लगी है

सदफ़ जाफ़री

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शिकवे की चुभन मुझ को सदा अच्छी लगी है
ये फ़र्त-ए-मोहब्बत की अदा अच्छी लगी है

ख़ाली है कहाँ लुत्फ़ से अब दिल का पिघलना
पुर-दर्द ज़माने की फ़ज़ा अच्छी लगी है

लम्हात-ए-मोहब्बत सभी यकसाँ नहीं होते
ऐ जान-ए-वफ़ा तेरी जफ़ा अच्छी लगी है

महफ़िल में शनासा भी बना बैठा है अंजान
उस शख़्स की मजबूर वफ़ा अच्छी लगी है

निकलेगा उसी पर्दे से तपता हुआ सूरज
ये सोच के ही काली घटा अच्छी लगी है

तू बंद किए कान जो सुनती है सभों की
सच-मुच ये 'सदफ़' तेरी अदा अच्छी लगी है