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शिकवा न चाहिए कि तक़ाज़ा न चाहिए | शाही शायरी
shikwa na chahiye ki taqaza na chahiye

ग़ज़ल

शिकवा न चाहिए कि तक़ाज़ा न चाहिए

असग़र गोंडवी

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शिकवा न चाहिए कि तक़ाज़ा न चाहिए
जब जान पर बनी हो तो क्या क्या न चाहिए

साक़ी तिरी निगाह को पहचानता हूँ मैं
मुझ से फ़रेब-ए-साग़र-ओ-मीना न चाहिए

ये आस्तान-ए-यार है सेहन-ए-हरम नहीं
जब रख दिया है सर तो उठाना न चाहिए

ख़ुद आप अपनी आग में जलने का लुत्फ़ है
अहल-ए-तपिश को आतिश-ए-सीना न चाहिए

क्या कम हैं ज़ौक़-ए-दीद की जल्वा-फ़राज़ियाँ
आँखों को इंतिज़ार-ए-तमाशा न चाहिए

वो बारगाह-ए-हुस्न अदब का मक़ाम है
जुज़ दर्द ओ इश्तियाक़ तक़ाज़ा न चाहिए

तेग़-ए-अदा में उस के है इक रूह-ए-ताज़गी
हम कुश्तगान-ए-शौक़ को मर जाना चाहिए

हस्ती के आब ओ रंग की ताबीर कुछ तो हो
मुझ को फ़क़त ये ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा न चाहिए

इस के सिवा तो मानी-ए-मजनूँ भी कुछ नहीं
ऐसा भी रब्त-ए-सूरत-ए-लैला न चाहिए

ठहरे अगर तो मंज़िल-ए-मक़्सूद फिर कहाँ
साग़र-ब-कफ़ गिरे तो सँभलना न चाहिए

इक जल्वा ख़ाल-ओ-ख़त से भी आरास्ता सही
वामाँदगी-ए-ज़ौक़-ए-तमाशा न चाहिए

सब अहल-ए-दीद बे-ख़ुद ओ हैरान ओ मस्त हैं
कोई अगर नहीं है तो परवा न चाहिए

'असग़र' सनम-परस्त सही फिर किसी को क्या
अहल-ए-हरम को काविश-ए-बेजा न चाहिए