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शिकवा करते हैं ज़बाँ से न गिला करते हैं | शाही शायरी
shikwa karte hain zaban se na gila karte hain

ग़ज़ल

शिकवा करते हैं ज़बाँ से न गिला करते हैं

हफ़ीज़ जौनपुरी

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शिकवा करते हैं ज़बाँ से न गिला करते हैं
तुम सलामत रहो हम तो ये दुआ करते हैं

फिर मिरे दिल के फँसाने की हुई है तदबीर
फिर नए सर से वो पैमान-ए-वफ़ा करते हैं

तुम मुझे हाथ उठा कर इस अदा से कोसो
देखने वाले ये समझें कि दुआ करते हैं

इन हसीनों का है दुनिया से निराला अंदाज़
शोख़ियाँ बज़्म में ख़ल्वत में हया करते हैं

हश्र का ज़िक्र न कर उस की गली में वाइ'ज़
ऐसे हंगामे यहाँ रोज़ हुआ करते हैं

लाग है हम से अदू को तो अदू से हमें रश्क
एक ही आग में हम दोनों जला करते हैं

उन का शिकवा न रक़ीबों की शिकायत है 'हफ़ीज़'
सिर्फ़ हम अपने मुक़द्दर का गिला करते हैं