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शिकवा जो मेरा अश्क में ढलता चला गया | शाही शायरी
shikwa jo mera ashk mein Dhalta chala gaya

ग़ज़ल

शिकवा जो मेरा अश्क में ढलता चला गया

नय्यर सुल्तानपुरी

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शिकवा जो मेरा अश्क में ढलता चला गया
सारा ग़ुबार दिल का निकलता चला गया

रौशन किया उमीद ने यूँ जादा-ए-हयात
हर गाम पे चराग़ सा जलता चला गया

रास आ सकी सुकूँ को ना तदबीर-ए-ज़ब्त-ए-ग़म
आँखों से ख़ून दिल का उबलता चला गया

जिस पर मिरे फ़रेब-ए-तमन्ना को नाज़ था
वो दिन भी इंतिज़ार में ढलता चला गया

पिछले पहर जो शम्अ ने खींची इक आह-ए-सर्द
चेहरे का उन के रंग बदलता चला गया

बढ़ने लगी यक़ीन ओ गुमाँ में जो कश्मकश
व'अदा भी सुब्ह ओ शाम पे टलता चला गया

वो नौहा-ए-अलम हो कि 'नय्यर' नवा-ए-शौक़
हर नग़्मा एक साज़ में ढलता चला गया