शिकवा-ए-गर्दिश-ए-हालात लिए फिरता है
जिस को देखो वो यही बात लिए फिरता है
उस ने पैकर में न ढलने की क़सम खाई है
और मुझे शौक़-ए-मुलाक़ात लिए फिरता है
शाख़चा टूट चुका कब का शजर से लेकिन
अब भी कुछ सूखे हुए पात लिए फिरता है
सोचिए जिस्म है अब रूह से कैसे रूठे
अपने साए को भी जो सात लिए फिरता है
आसमाँ अपने इरादों में मगन है लेकिन
आदमी अपने ख़यालात लिए फिरता है
परतव-ए-महर से है चाँद की झिलमिल 'अनवर'
अपने कासे में ये ख़ैरात लिए फिरता है
ग़ज़ल
शिकवा-ए-गर्दिश-ए-हालात लिए फिरता है
अनवर मसूद