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शिकवा बन कर फ़ुग़ाँ से उठता है | शाही शायरी
shikwa ban kar fughan se uThta hai

ग़ज़ल

शिकवा बन कर फ़ुग़ाँ से उठता है

महफ़ूज़ असर

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शिकवा बन कर फ़ुग़ाँ से उठता है
शो'ला-ए-ग़म ज़बाँ से उठता है

फिर जला आशियाँ कोई शायद
फिर धुआँ गुल्सिताँ से उठता है

टूट जाता है सिलसिला लय का
जब कोई दरमियाँ से उठता है

ठहरे पानी में कुछ नहीं होता
शोर आब-ए-रवाँ से उठता है

सर में सौदा-ए-बंदगी है 'असर'
कौन इस आस्ताँ से उठता है