शिकोह-ए-ज़ात से दुश्मन का लश्कर काँप जाता है
अगर किरदार पुख़्ता हो सितमगर काँप जाता है
तसव्वुर में उभरता है कभी जब क़ब्र का मंज़र
उचट जाती हैं नींदें और बिस्तर काँप जाता है
मिले हैं ज़ख़्म कुछ ऐसे मुझे अपने रफ़ीक़ों से
कई बरसों के कुछ रिश्तों का मेहवर काँप जाता है
किसी भी जंग में कोई शहादत की ख़बर सुन कर
सिसक उठते हैं कंगन और ज़ेवर काँप जाता है
वो हैदर मुर्तज़ा भी हैं वही शेर-ए-ख़ुदा भी हैं
वही इक नाम सुन के अब भी ख़ैबर काँप जाता है
चले आते हैं कुछ यूँ बे-सलीक़ा लोग मयख़ाने
सुराही रोने लगती है तो साग़र काँप जाता है
वही बे-ख़ौफ़ रहता है सदा 'शायान' दुनिया में
ख़ुदा के ख़ौफ़ से दिल जिस का अक्सर काँप जाता है
ग़ज़ल
शिकोह-ए-ज़ात से दुश्मन का लश्कर काँप जाता है
शायान क़ुरैशी