शिकस्ता-पा को भी अब ज़ौक़-ए-रह-नवर्दी है
दिलों में हम ने वो धुन मंज़िलों की भर दी है
गुज़ार कर तिरी यादों में चार दिन हम ने
समझ लिया कि कोई ख़ास बात कर दी है
मिरी तलब मिरी हस्ती से कुछ ज़ियादा न थी
अगरचे मुझ पे ये तोहमत जहाँ ने धर दी है
जो रास्ते नज़र आते हैं जाने-पहचाने
उन्हीं ने गुम-शुदगी की हमें ख़बर दी है
मिला सुराग़-ए-हक़ीक़त तो देखता क्या हूँ
कि उस ने क़ुव्वत इज़हार ख़त्म कर दी है
न पूछ आगही-ए-ग़म कि यूँ हुआ महसूस
दहकती आग पे मैं ने ज़बान धर दी है
बहुत बुझी हुई बातों का बोझ है दिल पर
मगर किसी को भी क्या 'तल्ख़' ने ख़बर दी है
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ग़ज़ल
शिकस्ता-पा को भी अब ज़ौक़-ए-रह-नवर्दी है
मनमोहन तल्ख़