EN اردو
शिकस्ता लम्हों का तू वक़्त को हिसाब न दे | शाही शायरी
shikasta lamhon ka tu waqt ko hisab na de

ग़ज़ल

शिकस्ता लम्हों का तू वक़्त को हिसाब न दे

मुमताज़ राशिद

;

शिकस्ता लम्हों का तू वक़्त को हिसाब न दे
हवा के हाथ में बिखरी हुई किताब न दे

सुलग रहा है बदन धूप की तमाज़त से
भड़क उठूँगा मुझे चश्मा-ए-सराब न दे

वो रंग-ए-शब है कि धुँदला के रह गईं आँखें
इन आइनों को अभी कोई अक्स-ए-ख़्वाब न दे

तिरे वजूद से बाहर भी एक दुनिया है
यूँ अपने आप को तन्हाई का अज़ाब न दे

मैं ज़िंदगी की सदा आग भी हूँ शबनम भी
मिरे दुखों को समझ यूँ मुझे जवाब न दे

गुज़र न दिल के बयाबाँ से अब्र की सूरत
सुकूत-ए-दश्त को मौजों का इज़्तिराब न दे

मिरी हयात का हामिल हैं ज़र्द-रू पत्ते
ख़िज़ाँ का नक़्श हूँ तू मुझ को आब-ओ-ताब न दे

न छुप सकेंगी सदाक़त की तल्ख़ियाँ 'राशिद'
बरहना शक्ल को अल्फ़ाज़ की नक़ाब न दे