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शिकस्ता घर में कोई चीज़ भी नहीं पूरी | शाही शायरी
shikasta ghar mein koi chiz bhi nahin puri

ग़ज़ल

शिकस्ता घर में कोई चीज़ भी नहीं पूरी

क़ासिम याक़ूब

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शिकस्ता घर में कोई चीज़ भी नहीं पूरी
कहीं हवा तो कहीं रौशनी नहीं पूरी

मैं तुझ को देख तो सकता हूँ छू नहीं सकता
तू है मगर तिरी मौजूदगी नहीं पूरी

अना सँभालते दिल खो दिया है मैं ने वहीं
तुम्हारे सामने से वापसी नहीं पूरी

मैं सोचता हूँ कि अब कूज़ा-गर बदल ही लूँ
जो मिल रही है मुझे बेहतरी नहीं पूरी

मैं रो रहा हूँ मगर सानेहा बताता है
कि उस की आँख से वाबस्तगी नहीं पूरी

कहीं तो हो जहाँ बच्चे ही सिर्फ़ रहते हों
किसी इलाक़े में भी ज़िंदगी नहीं पूरी