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शिकस्ता छत न सही आसमान रहने दे | शाही शायरी
shikasta chhat na sahi aasman rahne de

ग़ज़ल

शिकस्ता छत न सही आसमान रहने दे

मुमताज़ राशिद

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शिकस्ता छत न सही आसमान रहने दे
कड़ा है वक़्त कोई साएबान रहने दे

कुछ और तंग न हो जाए जंगलों का हिसार
फ़सील-ए-शहर अभी दरमियान रहने दे

क़रीब-ए-शहर पहुँच कर ग़ुबार-ए-राह न झाड़
थके बदन पे सफ़र का निशान रहने दे

न छीन मुझ से मिरे रोज़-ओ-शब के हंगामे
मैं जी रहा हूँ मुझे ये गुमान रहने दे

भड़क उठे न समुंदर की तिश्नगी 'राशिद'
मिरा लहू भी सर-ए-बादबान रहने दे