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शिकस्त-ओ-फ़त्ह-ए-मुक़ाबिल से बे-नियाज़ तो है | शाही शायरी
shikast-o-fath-e-muqabil se be-niyaz to hai

ग़ज़ल

शिकस्त-ओ-फ़त्ह-ए-मुक़ाबिल से बे-नियाज़ तो है

जे. पी. सईद

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शिकस्त-ओ-फ़त्ह-ए-मुक़ाबिल से बे-नियाज़ तो है
ब-फ़ैज़-ए-दार-ओ-रसन इश्क़ सरफ़राज़ तो है

उसी से निकलेंगे नग़्मात-ए-ज़िंदगी-परवर
शिकस्ता ही वो सही दिल भी एक साज़ तो है

हज़ार क़िस्मत-ओ-माहौल ज़िम्मेदार सही
मिरी तबाही से उन का भी साज़-बाज़ तो है

ग़ुरूर-ए-हुस्न सलामत मगर ये क्या कम है
हमारा दिल भी हरीफ़-ए-निगाह-ए-नाज़ तो है

हुआ है फ़ाश जहाँ पर ज़बाँ पे आए बग़ैर
दिल-ओ-निगाह के माबैन कोई राज़ तो है

अता-ए-बादा के इंकार से ये भेद खुला
कि मय-कशों में तिरे पास इम्तियाज़ तो है

मुझे तलाश-ए-मसर्रत की क्या ज़रूरत है
ख़ुशी ये कम नहीं दिल मेरा ग़म-नवाज़ तो है

नहीं 'सईद' मिरे पास शौकत-ए-अल्फ़ाज़
मिरी ग़ज़ल में मगर क़ल्ब का गुदाज़ तो है