शिकस्त-ए-अहद पर इस के सिवा बहाना भी क्या
कि उस का कोई नहीं था मिरा ठिकाना भी क्या
ये सच है उस से बिछड़ कर मुझे ज़माना हुआ
मगर वो लौटना चाहे तो फिर ज़माना भी क्या
मैं हर तरफ़ हूँ वो आए शिकार कर ले मुझे
जहाँ हदफ़ ही हदफ़ हो तो फिर निशाना भी क्या
वो चाहता है सलीक़े से बात करने लगूँ
जो इतनी सच हो बनेगी भला फ़साना भी क्या
उसी रविश पर चलो ज़िंदगी गुज़ार आएँ
सिवाए इस के करें हर्फ़ को बहाना भी क्या
जो लफ़्ज़ भूलना चाहूँ वो याद आता है
मिरी सज़ा के लिए और ताज़ियाना भी क्या
अब उस गली में है क्या इंतिज़ाम के लायक़
तो फिर रिसाला-ए-दिल को करें रवाना भी क्या
फ़राज़-ए-माह भी पहनाईयां भी रौशन हैं
चराग़ जलता है कोई तह-ए-ख़ज़ाना भी क्या
जहाँ भी जाऊँ वही इंतिज़ार की सूरत
वो मुझ को चाहे मगर इतना वालिहाना भी क्या
मिरा वजूद नहीं ख़ानक़ाह से बाहर
मगर फ़िशार-ए-ग़ज़ल में ये सूफियाना भी क्या
ग़ज़ल
शिकस्त-ए-अहद पर इस के सिवा बहाना भी क्या
अबुल हसनात हक़्क़ी