शिकन-अंदर-शिकन याद आ गया है
विसाल-ए-तिश्ना-तन याद आ गया है
ये दश्त-ए-आरज़ू की बे-पनाही
घने सपनों का बन याद आ गया है
मिरे रस्ते में चट्टानें बहुत हैं
मुझे अब कोहकन याद आ गया है
चराग़-ए-उर्यां तन को भी बिल-आख़िर
हवा का पैरहन याद आ गया है
बरसती जा रहीं बे-तहाशा
इन आँखों को वतन याद आ गया है
ये कैसा ख़्वाब है आँखों में 'बुशरा'
ये क्या दीवाना-पन याद आ गया है
ग़ज़ल
शिकन-अंदर-शिकन याद आ गया है
बुशरा ज़ैदी