शिकारी ने रक्खा ठिकाना बुलंद
हदफ़ पस्त-क़ामत निशाना बुलंद
यहाँ ज़ुल्म की हैं कमंदें दराज़
कहाँ तक करें आशियाना बुलंद
तिरे सामने सर-ब-सज्दा हैं लोग
मिरा नाम है ग़ाएबाना बुलंद
समझ लीजिए तल्ख़ गुज़रा है दिन
अगर है नवा-ए-शबाना बुलंद
मुझे बोलने की इजाज़त नहीं
मिरी ज़ात नीची ज़माना बुलंद
बड़ी तेज़ रफ़्तार है उम्र की
ख़ुदारा न कर ताज़ियाना बुलंद
मिरी चीख़ भी खो गई है 'रज़ा'
हुआ हर तरफ़ से तराना बुलंद
ग़ज़ल
शिकारी ने रक्खा ठिकाना बुलंद
क़ाज़ी हसन रज़ा