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शिकारी ने रक्खा ठिकाना बुलंद | शाही शायरी
shikari ne rakkha Thikana buland

ग़ज़ल

शिकारी ने रक्खा ठिकाना बुलंद

क़ाज़ी हसन रज़ा

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शिकारी ने रक्खा ठिकाना बुलंद
हदफ़ पस्त-क़ामत निशाना बुलंद

यहाँ ज़ुल्म की हैं कमंदें दराज़
कहाँ तक करें आशियाना बुलंद

तिरे सामने सर-ब-सज्दा हैं लोग
मिरा नाम है ग़ाएबाना बुलंद

समझ लीजिए तल्ख़ गुज़रा है दिन
अगर है नवा-ए-शबाना बुलंद

मुझे बोलने की इजाज़त नहीं
मिरी ज़ात नीची ज़माना बुलंद

बड़ी तेज़ रफ़्तार है उम्र की
ख़ुदारा न कर ताज़ियाना बुलंद

मिरी चीख़ भी खो गई है 'रज़ा'
हुआ हर तरफ़ से तराना बुलंद