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शिकार हो गया वो ख़ुद ही इस ज़माने का | शाही शायरी
shikar ho gaya wo KHud hi is zamane ka

ग़ज़ल

शिकार हो गया वो ख़ुद ही इस ज़माने का

सलमा शाहीन

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शिकार हो गया वो ख़ुद ही इस ज़माने का
जवाज़ ढूँड रहा था मुझे मिटाने का

ये इम्तिहान फ़न-ए-आज़री से है मंसूब
तराश लीजिए पत्थर कोई ठिकाने का

कभी रहा तो नहीं गर्दिश-ए-फ़लक का साथ
कहाँ से सीखा है तुम ने हुनर सताने का

मिरे ख़ुलूस का जिस को न ए'तिबार आया
फ़रेब खाता रहा उम्र भर ज़माने का

जो अहल-ए-दिल हैं वही आज़माए जाते हैं
अजीब रंग है क़ुदरत के कार-ख़ाने का

जो आ'ला ज़र्फ़ हैं मालूम है उन्हें 'शाहीन'
सलीक़ा चाहिए इंसाँ को ग़म उठाने का