शीशे से ज़ियादा नाज़ुक था ये शीशा-ए-दिल जो टूट गया
मत पूछो कि मुझ पर क्या गुज़री जब हाथ से साग़र छूट गया
तारीकी-ए-महफ़िल का शिकवा तुम करते हो ऐ दीवानो क्यूँ
ख़ुद शम्अ' बुझा दी है तुम ने ख़ुद-बख़्त तुम्हारा फूट गया
साक़ी की नज़र उठती ही नहीं क्यूँ बादा-ओ-साग़र की जानिब
सरमाया-ए-मय-ख़ाना आ कर क्या कोई लुटेरा लूट गया
महरूमी-ए-क़िस्मत का आलम क्या पूछ रहे हो तुम मुझ से
मंज़िल तो अभी है दूर बहुत और इक इक साथी छूट गया
उठता है 'दानिश' दिल से धुआँ आँखों से टपकते हैं आँसू
क्या आतिश-ए-ग़म देने लगी लौ क्या दिल का फफूला फूट गया
ग़ज़ल
शीशे से ज़ियादा नाज़ुक था ये शीशा-ए-दिल जो टूट गया
दानिश फ़राही