EN اردو
शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या | शाही शायरी
shishe ka aadmi hun meri zindagi hai kya

ग़ज़ल

शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या

इब्राहीम अश्क

;

शीशे का आदमी हूँ मिरी ज़िंदगी है क्या
पत्थर हैं सब के हाथ में मुझ को कमी है क्या

अब शहर में वो फूल से चेहरे नहीं रहे
कैसी लगी है आग ये बस्ती हुई है क्या

मैं जल रहा हूँ और कोई देखता नहीं
आँखें हैं सब के पास मगर बेबसी है क्या

तुम दोस्त हो तो मुझ से ज़रा दुश्मनी करो
कुछ तल्ख़ियाँ न हों तो भला दोस्ती है क्या

ऐ गर्दिश-ए-तलाश न मंज़िल न रास्ता
मेरा जुनूँ है क्या मिरी आवारगी है क्या

ख़ुश हो के हर फ़रेब ज़माने का खा लिया
ये दिल ही जानता है कि दिल पर बनी है क्या

दो बोल दिल के हैं जो हर इक दिल को छू सकें
ऐ 'अश्क' वर्ना शेर हैं क्या शाइरी है क्या