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शिद्दत-ए-कर्ब से कराह उठा | शाही शायरी
shiddat-e-karb se karah uTha

ग़ज़ल

शिद्दत-ए-कर्ब से कराह उठा

सालेह नदीम

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शिद्दत-ए-कर्ब से कराह उठा
जब उठा दर्द-ए-बे-पनाह उठा

मेरे आगे चला न ज़ोर-ए-तिलिस्म
मेरे पीछे ग़ुबार-ए-राह उठा

बे-सबब रात भर चराग़ जले
मैं धुआँ बन के ख़्वाह-मख़ाह उठा

दिल बग़ावत पे कब था आमादा
सर था जो पेश-ए-बादशाह उठा

छोड़ दे आज शर्म का दामन
ऐ परी-ज़ाद अब निगाह उठा

मुझ से क़ाएम थी बज़्म की रौनक़
मैं उठा फ़र्श-ए-ख़ानक़ाह उठा

ऐ जहाँगीर अपना अदल तो देख
कोई भर कर यहाँ से आह उठा