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शिद्दत-ए-दर्द-ए-जिगर हो ये ज़रूरी तो नहीं | शाही शायरी
shiddat-e-dard-e-jigar ho ye zaruri to nahin

ग़ज़ल

शिद्दत-ए-दर्द-ए-जिगर हो ये ज़रूरी तो नहीं

शातिर हकीमी

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शिद्दत-ए-दर्द-ए-जिगर हो ये ज़रूरी तो नहीं
और फिर आँख भी तर हो ये ज़रूरी तो नहीं

बे-ख़ुदी बाइस-ए-कुल्फ़त भी तो हो सकती है
हर नफ़स कैफ़-असर हो ये ज़रूरी तो नहीं

ख़ुद को पामाल ही करना है तो ऐ जोश-ए-जुनूँ
वो तिरी राह-गुज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं

नश्शा-ए-ख़्वाब चुरा लाए तिरी आँखों से
नाला-ए-शब में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं

नज़र आता है जिधर सिलसिला-ए-नक़्श-ए-क़दम
मेरी मंज़िल भी उधर हो ये ज़रूरी तो नहिं