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शेर कहने की तबीअत न रही | शाही शायरी
sher kahne ki tabiat na rahi

ग़ज़ल

शेर कहने की तबीअत न रही

अब्दुल सलाम

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शेर कहने की तबीअत न रही
जिस से आमद थी वो सूरत न रही

उस की दहलीज़ से उठ जाऊँ मगर
लोग सोचेंगे मोहब्बत न रही

अब मिला अद्ल, गया दौर-ए-शबाब
मुंसिफ़ी तेरी भी वक़अत न रही

वक़्त की दौड़ में रुकना था कठिन
साँस लेने की भी फ़ुर्सत न रही

वक़्त-ए-दीदार अजब हुक्म हुआ
होश खोने की इजाज़त न रही

तुम से जज़्बात थे जब तुम ही नहीं
फिर ज़माने से शिकायत न रही

मैं निकल आऊँ बयाबाँ से अगर
शोहरा हो जाएगा वहशत न रही

भीड़ में ढूँडें कहाँ क़ैस को अब
वो जो पहचान थी वहशत न रही

दौर-ए-रफ़्ता के नमूने हो 'सलाम'
अब तकल्लुफ़ की ज़रूरत न रही