शेर कहने की तबीअत न रही
जिस से आमद थी वो सूरत न रही
उस की दहलीज़ से उठ जाऊँ मगर
लोग सोचेंगे मोहब्बत न रही
अब मिला अद्ल, गया दौर-ए-शबाब
मुंसिफ़ी तेरी भी वक़अत न रही
वक़्त की दौड़ में रुकना था कठिन
साँस लेने की भी फ़ुर्सत न रही
वक़्त-ए-दीदार अजब हुक्म हुआ
होश खोने की इजाज़त न रही
तुम से जज़्बात थे जब तुम ही नहीं
फिर ज़माने से शिकायत न रही
मैं निकल आऊँ बयाबाँ से अगर
शोहरा हो जाएगा वहशत न रही
भीड़ में ढूँडें कहाँ क़ैस को अब
वो जो पहचान थी वहशत न रही
दौर-ए-रफ़्ता के नमूने हो 'सलाम'
अब तकल्लुफ़ की ज़रूरत न रही
ग़ज़ल
शेर कहने की तबीअत न रही
अब्दुल सलाम