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शे'र अच्छा हो तो फिर दाद मिला करती है | शाही शायरी
sher achchha ho to phir dad mila karti hai

ग़ज़ल

शे'र अच्छा हो तो फिर दाद मिला करती है

मज़हर अब्बास

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शे'र अच्छा हो तो फिर दाद मिला करती है
कहीं आवाज़ किताबों में छुपा करती है

एक लम्हा भी फ़रिश्ता नहीं होने देती
कोई तो शय है जो बातिन में ख़ता करती है

चैन से मुझ को तिरा हुस्न न जीने देगा
दिल की बस्ती है कि हर रोज़ लुटा करती है

प्यास कैसी थी बेहतर की तुम्हें क्या मा'लूम
क्यूँ फ़ुरात आज भी रो रो के बहा करती है

तुम वफ़ा करते रहो शहर-ए-तलब में 'मज़हर'
करने दो उस को ये दुनिया जो जफ़ा करती है