EN اردو
शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे | शाही शायरी
shauq phir kucha-e-jaanan ka satata hai mujhe

ग़ज़ल

शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

;

शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे
मैं कहाँ जाता हूँ कोई लिए जाता है मुझे

जल्वा किस आईना-रू का है निगाहों में कि फिर
दिल-ए-हैरत-ज़दा आईना बनाता है मुझे

आशिक़ी शेवा लड़कपन से है अपना नासेह
क्या करूँ मैं कि यही काम कुछ आता है मुझे

लुत्फ़ कर लुत्फ़ कि फिर मुझ को न देखेगा कभी
याद रख याद कि तू दर से उठाता है मुझे

'वहशत' इस मिस्रा-ए-जुरअत ने मुझे मस्त किया
कुछ तो भाया है कि अब कुछ नहीं भाता है मुझे