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शौक़ की कम-निगही भी है गवारा मुझ को | शाही शायरी
shauq ki kam-nigahi bhi hai gawara mujhko

ग़ज़ल

शौक़ की कम-निगही भी है गवारा मुझ को

याक़ूब उस्मानी

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शौक़ की कम-निगही भी है गवारा मुझ को
ग़म तो ग़म आज ख़ुशी भी है गवारा मुझ को

जुस्तुजू साथ है शम-ए-रह-ए-मंज़िल बन कर
अपनी बे-राह-रवी भी है गवारा मुझ को

लज़्ज़त-ए-ज़ीस्त ब-हर-तौर सभी को है अज़ीज़
ज़हर-ए-मीना-ए-ख़ुदी भी है गवारा मुझ को

सोज़न-ए-रहम-ओ-करम करती है क्यूँ सई-ए-रफ़ू
चाक-दामान-ए-तही भी है गवारा मुझ को

आप लिल्लाह न फ़रमाएँ ज़ियादा ज़हमत
अब तवज्जोह की कमी भी है गवारा मुझ को

सिर्फ़ तर-दामनी-ए-दिल ही पे इसरार नहीं
चश्म-ए-पुर-नम की कमी भी है गवारा मुझ को

जुरअत-ए-अर्ज़-ए-तमन्ना से हूँ बद-ज़न 'याक़ूब'
ज़ब्त की कम-सुख़नी भी है गवारा मुझ को