शौक़ देता है मुझे पैग़ाम-ए-इश्क़ 
हाथ में लबरेज़ ले कर जाम-ए-इश्क़ 
आप हूँ ज़ौक़-ए-असीरी से ख़राब 
कोई ले जाए मुझे ता दाम-ए-इश्क़ 
इश्तियाक़-ए-सज्दा से बेताब हूँ 
ऐ हरीम-ए-काबा-ए-इस्लाम-ए-इश्क़ 
क़ैस ओ वामिक़ से कहाँ अब अहल-ए-दिल 
था इन्हीं लोगों से रौशन नाम-ए-इश्क़ 
नाश पर फ़रहाद के शीरीं गई 
वो सितम-परवर्दा-ए-आलाम-ए-इश्क़ 
और यूँ करने लगी रो कर ख़िताब 
ऐ वफ़ा की जान ऐ नाकाम-ए-इश्क़ 
तुझ से रौनक़-आश्ना है सुब्ह-ए-शौक़ 
तुझ से ज़ीनत-आफ़रीं है शाम-ए-इश्क़ 
जान दे कर तू तो छूटा रंज से 
रह गई मैं ही बला आशाम-ए-इश्क़ 
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था 
मौत पर होगा मिरे अंजाम-ए-इश्क़ 
'वहशत'-ए-वहशी कि था सब से अलग 
हो गया क्या बे-तकल्लुफ़ राम-ए-इश्क़
        ग़ज़ल
शौक़ देता है मुझे पैग़ाम-ए-इश्क़
वहशत रज़ा अली कलकत्वी

