EN اردو
शरीक-ए-रस्म-ए-गिर्या हैं समुंदर-आश्ना आँखें | शाही शायरी
sharik-e-rasm-e-girya hain samundar-ashna aankhen

ग़ज़ल

शरीक-ए-रस्म-ए-गिर्या हैं समुंदर-आश्ना आँखें

मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र

;

शरीक-ए-रस्म-ए-गिर्या हैं समुंदर-आश्ना आँखें
जहान-ए-आरज़ू में कर न दें महशर बपा आँखें

ये पत्थर की न हो जाएँ कहीं अक़्लीम-ए-हस्ती में
रखे महफ़ूज़ आशोब-ए-तमन्ना से ख़ुदा आँखें

तुम्हारे वादा-ए-शब का यक़ीं आता नहीं उन को
रहीन-ए-फ़ित्ना-ए-ग़म हैं सुकूँ ना-आश्ना आँखें

हिसार-ए-दश्त-ए-वहशत में बगूलों के इशारों पर
हथेली पर लिए फिरती है मुद्दत से हवा आँखें

फ़सील-ए-शहर-ए-तारीकी से जाने कब रिहाई हो
असीर-ए-क़र्या-ए-शब हैं मिरी सीमाब-पा आँखें

तुम्हारी शान-ए-यकताई है आलम दिल-फ़रेबी का
वगरना देखती हैं यूँ पस-ए-मंज़र में क्या आँखें

हरीम-ए-नाज़ में तेरा न गर जल्वा दिखाई दे
तो बेहतर है रह-ए-उल्फ़त में हो जाएँ फ़ना आँखें

हुई मुद्दत निगाहों से छुआ था मरमरीं चेहरा
तिलिस्म-ए-ख़्वाब से अब तक न हो पाईं रिहा आँखें

'मुज़फ़्फ़र' ज़िंदगी में फ़र्ज़ तो इक बार था लेकिन
तवाफ़-ए-काबा-ए-दिल कर चुकी हैं बारहा आँखें