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शरीफ़े के दरख़्तों में छुपा घर देख लेता हूँ | शाही शायरी
sharife ke daraKHton mein chhupa ghar dekh leta hun

ग़ज़ल

शरीफ़े के दरख़्तों में छुपा घर देख लेता हूँ

मोहम्मद अल्वी

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शरीफ़े के दरख़्तों में छुपा घर देख लेता हूँ
मैं आँखें बंद कर के घर के अंदर देख लेता हूँ

उधर उस पार क्या है ये कभी सोचा नहीं मैं ने
मगर मैं रोज़ खिड़की से समुंदर देख लेता हूँ

सड़क पे चलते फिरते दौड़ते लोगों से उकता कर
किसी छत पर मज़े में बैठे बंदर देख लेता हूँ

ये सच है अपनी क़िस्मत कोई कैसे देख सकता है
मगर मैं ताश के पत्ते उठा कर देख लेता हूँ

गली-कूचों में चौराहों पे या बस की क़तारों में
मैं उस चुप-चाप सी लड़की को अक्सर देख लेता हूँ

चला जाऊँगा जैसे ख़ुद को तन्हा छोड़ कर 'अल्वी'
मैं अपने आप को रातों में उठ कर देख लेता हूँ