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शरार-ए-इश्क़ सदियों का सफ़र करता हुआ | शाही शायरी
sharar-e-ishq sadiyon ka safar karta hua

ग़ज़ल

शरार-ए-इश्क़ सदियों का सफ़र करता हुआ

कबीर अजमल

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शरार-ए-इश्क़ सदियों का सफ़र करता हुआ
बुझा मुझ में मुझी को बे-ख़बर करता हुआ

रुमूज़-ए-ख़ाक बाब-ए-मुश्तहर करता हुआ
यूँही आबाद सहरा-ए-हुनर करता हुआ

ज़मीन-ए-जुस्तुजू गर्द-ए-सफ़र करता हुआ
ये मुझ में कौन है मुझ से मफ़र करता हुआ

अभी तक लहलहाता है वो सब्ज़ा आँख में
वो मौज-ए-गुल को मेयार-ए-नज़र करता हुआ

हरीम-ए-शब में ख़ूँ रोता हुआ माह-ए-तमाम
निगार-ए-सुब्ह क़िस्सा मुख़्तसर करता हुआ

मिरी मिट्टी को ले पहुँचा दयार-ए-यार तक
ग़ुबार-ए-जाँ तवाफ़-ए-चश्म-ए-तर करता हुआ

तकब्बुर ले रहा है इम्तिहाँ फिर अज़्म का
सितारों को मिरे ज़ेर-ए-असर करता हुआ

फ़लक-बोसी की ख़्वाहिश ताइर-ए-वहशत को थी
उड़ा है अपनी मिट्टी दरगुज़र करता हुआ