शराब ढलती है शीशे में फूल खिलते हैं
चले भी आओ कि अब दोनों वक़्त मिलते हैं
जो हो सके तो गले मिल के रो ले ऐ ग़म-ख़्वार
कि आँसुओं ही से दामन के चाक सिलते हैं
ये और बात कहानी सी कोई बन जाए
हरीम-ए-नाज़ के पर्दे हवा से हिलते हैं
मिरे लहू से मोअत्तर तिरे लबों के गुलाब
तिरी वफ़ा से कँवल मेरे दिल के खिलते हैं
धड़क रहा है मसर्रत से काएनात का दिल
कभी के बिछड़े हुए दोस्त आज मिलते हैं
ग़ज़ल
शराब ढलती है शीशे में फूल खिलते हैं
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

