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शम्अ नाज़ाँ है फ़क़त सर से भड़क जाने में आग | शाही शायरी
shama nazan hai faqat sar se bhaDak jaane mein aag

ग़ज़ल

शम्अ नाज़ाँ है फ़क़त सर से भड़क जाने में आग

मिर्ज़ा अली लुत्फ़

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शम्अ नाज़ाँ है फ़क़त सर से भड़क जाने में आग
फूँक दे सारा जहाँ हैगी वो परवाने में आग

शो'ला-ए-शम-ए-हरम हुस्न-ए-बुताँ से है ख़जिल
मुझ को ख़तरा है कि लग जाए न बुत-ख़ाने में आग

देखना गर्मी की ख़ूबी मेरी बारी जब आए
जा-ए-मय साक़ी ने भर दी मिरे पैमाने में आग

शैख़ की सुमरन-शुमारी में कोई गर्मी नहीं
चश्म-ए-बीना हो तो ज़ाहिर है हर इक दाने में आग

आतिशीं नाले वो मजनूँ के मुझे आते हैं याद
देखता हूँ जो कहीं दहके है वीराने में आग

बे-दिमाग़ी है बजा उस के फ़साने से मिरी
ख़्वाब क्या लावे वो पिन्हाँ हो जिस अफ़्साने में आग

कब हिंसा था मैं भला जलने पे परवाने के 'लुत्फ'
दफ़अ'तन फूंकी मिरी जाएगी जो काशाने में आग