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शम्अ' में सोज़ की वो ख़ू है न परवाने में | शाही शायरी
shama mein soz ki wo KHu hai na parwane mein

ग़ज़ल

शम्अ' में सोज़ की वो ख़ू है न परवाने में

रशीद शाहजहाँपुरी

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शम्अ' में सोज़ की वो ख़ू है न परवाने में
जो है ऐ बर्क़-शमाइल तिरे दीवाने में

लुत्फ़ था ज़िक्र-ए-दिल-सोख़्ता दोहराने में
सोज़ है साज़ कहाँ तूर के अफ़्साने में

था जो उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ के पैमाने में
कैफ़ वो ढूँडिए अब कौन है मयख़ाने में

वास्ता दस्त-ए-निगारीं का तुझे ऐ क़ातिल
एक सुर्ख़ी की कमी है मिरे अफ़्साने में

जो कभी था वही है आज भी अफ़्साना-ए-इश्क़
एक दो लफ़्ज़ बदल जाते हैं दोहराने में

मौत भी मुनहसिर इन की निगह-ए-नाज़ पे थी
अब नहीं कोई कमी इश्क़ के अफ़्साने में

वही शय जो अभी मीना में थी इक मौज-ए-नशात
वही तूफ़ान-ए-तरब बन गई पैमाने में

क़ौल वाइ'ज़ का बजा शैख़ की तल्क़ीन दुरुस्त
दिल-ए-काफ़िर कहीं आए भी तो समझाने में

क़ैद-ए-हस्ती को समझता है जुनूँ की तौहीन
अब तो कुछ होश के अंदाज़ हैं दीवाने में

शुक्र बन जाते हैं आते ही ज़बाँ तक शिकवे
जाने क्या बात है उस आँख के शरमाने में

किस तरह हज़रत-ए-वाइज़ को ये समझाऊँ 'रशीद'
रिंद क्या देख लिया करते हैं पैमाने में