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शम-ए-महफ़िल हो के भी गिर्वीदा-ए-महफ़िल नहीं | शाही शायरी
sham-e-mahfil ho ke bhi girwida-e-mahfil nahin

ग़ज़ल

शम-ए-महफ़िल हो के भी गिर्वीदा-ए-महफ़िल नहीं

क़ैसर उमराव तोवी

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शम-ए-महफ़िल हो के भी गिर्वीदा-ए-महफ़िल नहीं
मैं हूँ दुनिया में मगर दुनिया में मेरा दिल नहीं

मेरे दिल की धड़कनें जब तक हैं तूफ़ाँ सैंकड़ों
मौज बेताबी है मेरी ज़िंदगी साहिल नहीं

ये नमाज़ों में ख़याल-ए-जन्नत-ओ-हूर-ओ-क़सूर
ज़ाहिद-ए-कज-बीं अभी नौ-मश्क़ है कामिल नहीं

बे-नियाज़-ए-फ़िक्र-ए-मंज़िल बे-ख़ुदी ने कर दिया
अब मिरे दामन पे दाग़-ए-हसरत-ए-मंज़िल नहीं

ना-ख़ुदा क्यूँ आसमाँ को तक रहा है बार बार
रुख़ उधर कश्ती का अब कर दे जिधर साहिल नहीं

इक दिल-ए-दीवाना था जाता रहा जाने भी दो
ये कहो क्यूँ आज-कल सी रौनक़-ए-महफ़िल नहीं

मेरी फ़ितरत ही नहीं 'क़ैसर' कि मैं छुप कर पियूँ
जिस में खटका हो वो जन्नत भी मिरे क़ाबिल नहीं