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शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं | शाही शायरी
shajar jalte hain shaKHen jal rahi hain

ग़ज़ल

शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं

ज़िया जालंधरी

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शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं
हवाएँ हैं कि पैहम चल रही हैं

तलब रद्द-ए-तलब दोनों क़यामत
ये आँखें उम्र-भर जल-थल रही हैं

चमकता चाँद-चेहरा सामने था
उमंगें बहर थीं बेकल रही हैं

दबे-पाँव मिरी तन्हाइयों में
हवाएँ ख़्वाब बन कर चल रही हैं

सहर-दम सोहबत-ए-रफ़्ता की यादें
मिरे पहलू में आँखें मल रही हैं

तिरी याद और बे-ख़्वाबी की रातें
ये पलकें आँख पर बोझल रही हैं

बहुत पेचीदा हैं चाहत के अंदाज़
कि अब दिल-दारियाँ भी खल रही हैं

तराज़ू हैं ख़िरद-मंदों के दिल में
वही बातें जो बे-अटकल रही हैं

'ज़िया' उन साअतों में उम्र गुज़री
खुली आँखों से जो ओझल रही हैं