शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई
मिरे दिल का नक़्शा बदल गया मिरी सुब्ह रात में ढल गई
वही ज़िंदगी जो बहर नफ़स जो बहर क़दम मिरे साथ थी
कभी मेरा साथ भी छोड़ कर मिरी मंज़िलें भी बदल गई
न वो आरज़ू है न जुस्तुजू न कोई तसव्वुर-ए-रंग-ओ-बू
लिए दिल में दाग़-ए-ग़म-ए-ख़िज़ाँ मैं चमन से दूर निकल गई
तिरी चाल पूरी न हो सकी तिरा वार ख़ाली चला गया
ज़रा देख गर्दिश-ए-आसमाँ कि मैं गिरते गिरते सँभल गई
तिरी चाहतों से सँवर गए ये मिरे जमाल के आईने
मैं गुलाब बन के महक उठी मैं शफ़क़ के रंग में ढल गई
ये तिलिस्म-ए-मौसम-ए-गुल नहीं कि ये मोजज़ा है बहार का
वो कली जो शाख़ से गिर गई वो सबा की गोद में पल गई
वही साअत-ए-ग़म-ए-आरज़ू जो हमेशा दिल में बसी रही
है ख़ुदा का शुक्र कि 'आफ़रीं' वो हमारे सर से तो टल गई
ग़ज़ल
शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई
गुलनार आफ़रीन