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शैख़ ओ बरहमन दोनों हैं बर-हक़ दोनों का हर काम मुनासिब | शाही शायरी
shaiKH o barhaman donon hain bar-haq donon ka har kaam munasib

ग़ज़ल

शैख़ ओ बरहमन दोनों हैं बर-हक़ दोनों का हर काम मुनासिब

शौक़ बहराइची

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शैख़ ओ बरहमन दोनों हैं बर-हक़ दोनों का हर काम मुनासिब
बेच लें फ़ौरन दैर-ओ-हरम भी पाएँ कहीं गर दाम मुनासिब

मेरा तो हर इक फ़ेल अबस है ग़ैर का हर इक़दाम मुनासिब
वाक़िआ ये है पीव जिसे चाहें उस का सुहागन नाम मुनासिब

वक़्त का पैहम यूँ है तक़ाज़ा रहबर-ए-सद-साला को हटा दो
जैसे पुरानी चीज़ का अक्सर होता है नीलाम मुनासिब

ख़ौफ़ है दिन को देखे न दुनिया हो न तक़द्दुस आप का रुस्वा
क़स्द है मय-ख़ाने का जो वाइज़ इस के लिए है शाम मुनासिब

तेरे तग़ाफ़ुल ने किया ज़ख़्मी तेरी अदाओं ने हमें मारा
चाहने वालों के लिए ज़ालिम थे यही एटम-बाम मुनासिब

तुझ को ख़बर क्या इस की नहीं है साथी कहाँ से पहुँचे कहाँ तक
होश में आ आराम के बच्चे अब है नहीं आराम मुनासिब

ये तिरी सादा-लौहियाँ नासेह रंग किसी दिन ला के रहेंगी
ख़ूब बनेगी तेरी हजामत मिल गए गर हज्जाम मुनासिब

सीम-ओ-जवाहर माह-लक़ा ले अपनी हरीम-ए-नाज़ सजा ले
ख़ूब मज़े दुनिया के उड़ा ले हैं अभी ये अय्याम मुनासिब

बात भी उन से की न किसी ने आरज़ू दिल की रह गई दिल में
घर में ही बैठी रह गई लड़की आया न इक पैग़ाम मुनासिब

शैख़ ओ बरहमन से कोई कह दे रुख़ न करें भूले से उधर का
ये है मय-ख़ाना नहीं इस में दाख़िला-ए-अय्याम मुनासिब

जौर-ओ-सितम ढाने में जो पैहम आया है उन के रुख़ पे पसीना
है मिरे अरमानों के नहाने के लिए ये हम्माम मुनासिब

बात कोई इज़हार-ए-हक़ीक़त में भी उठा रखना नहीं ज़ालिम
'शौक़' कभी अशआर में जैसे होता नहीं इल्हाम मुनासिब