शहर सुनसान है किधर जाएँ
ख़ाक हो कर कहीं बिखर जाएँ
रात कितनी गुज़र गई लेकिन
इतनी हिम्मत नहीं कि घर जाएँ
यूँ तिरे ध्यान से लरज़ता हूँ
जैसे पत्ते हवा से डर जाएँ
उन उजालों की धुन में फिरता हूँ
छब दिखाते ही जो गुज़र जाएँ
रैन अँधेरी है और किनारा दूर
चाँद निकले तो पार उतर जाएँ
ग़ज़ल
शहर सुनसान है किधर जाएँ
नासिर काज़मी