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शहर मेरी मजबूरी गाँव मेरी आदत है | शाही शायरी
shahr meri majburi ganw meri aadat hai

ग़ज़ल

शहर मेरी मजबूरी गाँव मेरी आदत है

नाज़िम नक़वी

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शहर मेरी मजबूरी गाँव मेरी आदत है
एक सानेहा मुझ पर इक मिरी विरासत है

ये भी इक करिश्मा है बीसवीं सदी तेरा
मौत के शिकंजे में ज़िंदगी सलामत है

फिर 'अनीस' मिम्बर पर मर्सिया पढ़ें आ कर
कर्बला ये दुनिया है हर घड़ी शहादत है

जैसे चाहे जी लीजे फेंकिए या पी लीजे
ज़िंदगी तो हर घर में चार दिन की मोहलत है

वक़्त के बदलने से दिल कहाँ बदलते हैं
आप से मोहब्बत थी आप से मोहब्बत है

मुस्कुरा के खुल जाना खुल के फिर बिखर जाना
इन दिनों तो फूलों में आप सी शरारत है

एक सदा ये आती है मेरी ख़्वाब-गाहों में
दिल को चैन आ जाना दर्द की अलामत है

तू गया नमाज़ों में मैं गया जवाज़ों में
वो तिरी इबादत थी ये मिरी इबादत है

मेरी राय पूछो तो ये बुरी-भली दुनिया
आप जितने अच्छे हैं उतनी ख़ूबसूरत है