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शहर में कैसा ख़तर लगता है | शाही शायरी
shahr mein kaisa KHatar lagta hai

ग़ज़ल

शहर में कैसा ख़तर लगता है

शरीफ़ अहमद शरीफ़

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शहर में कैसा ख़तर लगता है
अपने साए से भी डर लगता है

आज फिर दिल है दुआ पर माइल
बंद फिर बाब-ए-असर लगता है

कुछ वक़ार-ए-दर-ओ-दीवार नहीं
हो मकीं घर में तो घर लगता है

आशियाँ जिस में परिंदों के न हों
कितना तन्हा वो शजर लगता है

आसमाँ कितना झुक आया है 'शरीफ़'
सर उठाता हूँ तो सर लगता है