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शहर में इक क़त्ल की अफ़्वाह रौशन क्या हुई | शाही शायरी
shahr mein ek qatl ki afwah raushan kya hui

ग़ज़ल

शहर में इक क़त्ल की अफ़्वाह रौशन क्या हुई

शारिक़ अदील

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शहर में इक क़त्ल की अफ़्वाह रौशन क्या हुई
इक तरफ़ तकबीर थी और इक तरफ़ जय की पुकार

ख़ौफ़-ओ-दहशत के असर से चंद बिफरे नौजवाँ
ज़िंदगी को कर रहे थे हर तरफ़ खुल कर शिकार

ख़ून से लुथड़ी हुई लाशें उठाए गोद में
आसमाँ की सम्त माएँ देखती थीं बार बार

जब्र-ओ-इस्तिहसाल के इस आतिशीं सैलाब में
बह गए इंसानियत के लहलहाते बर्ग-ओ-बार

फिर हुआ यूँ कर्फ़्यू की ख़ामुशी के दरमियाँ
दर्द में डूबी हुई आई क़लंदर की पुकार